Movie Review: 'फग्ली'
Director: कबीर सदानंद
हम सभी यह मानते हैं कि जिमी शेरगिल एक अच्छे कलाकार हैं, लेकिन 'फग्ली' देखने के दौरान लगता है कि वह लेजेंड हैं। यहां तक कि फिल्म के कुछ दृश्यों को देखकर हमें खुद को यह भरोसा दिलाना पड़ता है कि वह रॉबर्ट डी नीरो और अमिताभ बच्चन से बेहतर कलाकार हैं। यकीन मानिए, ऐसा हम हवा में नहीं कह रहे हैं, बल्कि 'फग्ली' के बाकी सभी कलाकारों के बुरे अभिनय को देखकर तो जिमी अभिनय के देवता ही प्रतीत होते हैं। फिल्म की कहानी गिरते-पड़ते क्लाइमेक्स तक पहुंचती है।
कुछेक जगह फिल्म जरूर सिस्टम की झलक भर दिखाने में कामयाब होती है, लेकिन यह फिल्म का असली मकसद नहीं है। फिल्म चार दोस्तों को लेकर बुनी गई है, लेकिन इसी बीच डायरेक्टर ने भारतीय राजनीति की झलक दिखाने की कोशिश कर डाली और सिस्टम की पोल खोलने में भी दिलचस्पी लेने लगे। पटकथा का भटकाव इन सब बातों को रौंदकर अंतत: ऊब की ओर बढ़ने लगता है। न सिस्टम की झलक ठीक ढंग से फिल्म में नजर आती है और न राजनीति की बिसात ही नजर आती है। फिल्म कलाकारों के संवाद उगलते जाने के साथ खत्म हो जाती है।
कहानी: जिमी शेरगिल को देखो और सोचो...चलो कुछ तो था!
फिल्म चार दोस्तों के इर्द-गिर्द घूमती है। कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद गौरव (विजेंद्र सिंह), देव (मोहित मारवाह), आदित्य (अर्फी लांबा) और देवी (किआरा आडवाणी)को अपनी मंजिल की तलाश है। गौरव जो एक राजनीतिक परिवार से ताल्लुकात रखता है, के दादा का हरियाणा की राजनीति में दबदबा है। शासन-प्रशासन में गौरव के दादा की धमक होती है, लेकिन सियासत में एक गलत कदम उनके राजनीतिक करियर को चौपट कर देता है। आलम यह है कि दादा जी की अपनी हवेली में ही इनकम टैक्स की रेड लग चुकी है। देवी के पापा सेना में रहते हुए आतंकवादियों के साथ हुई मुठभेड़ में शहीद हो जाते हैं। वीरगति के बाद सरकार देवी की मां को पदक देकर, सम्मानजनक जिंदगी दिलवाने का वादा तो करती है, लेकिन असल में ऐसा नहीं होता। देवी अपनी विधवा मां के साथ रहती है। देवी के घर का गुजारा हर महीने मिलने वाली सरकारी पेंशन से चलता है। एक दिन जब देवी अपने घर के नजदीकी जनरल स्टोर से सामान लेने जाती है, तो स्टोर का मालिक नुनु अग्रवाल उसके साथ छेड़छाड़ करता है। देवी अपने साथ हुई छेड़छाड़ की बात अपने दोस्तों को बताती है तो सभी दुकानदार को सबक सिखाने के मकसद से देर रात उसकी दुकान पर धमक जाते हैं। यहीं से कहानी में बिखराव भी शुरू हो जाता है। दुकान मालिक की जमकर पिटाई के बाद चारों उसे गाड़ी में डालकर पीटते हुए सड़कों पर घूम रहे हैं।
इसी दौरान चारों का सामना भ्रष्ट पुलिस इंस्पेक्टर आर.एस. चौटाला (जिमी शेरगिल) से होता है। चारों तैश में आकर चौटाला से बदतमीजी से बात करते हैं। यहां तक कि गौरव चौटाला को अपने पॉलिटिकल बैकग्राउंड की धौंस भी दिखाता है, लेकिन तब तक चौटाला चारों को जिंदगीभर का सबक सिखाने का मन बना लेता है। चौटला नुनु अग्रवाल को गोली मार देता है और चारों को उसे रिश्वत न देने की दशा में दुकानदार की हत्या के केस में फंसाने की बात कहता है। यहीं से चारों दोस्त चौटाला के खेल में फंसते जाते हैं, जहां उनकी मदद करने वाला दूर-दूर तक कोई नजर नहीं आता। इसके आगे क्या गौरव, देव, आदित्य और देवी चौटाला के चंगुल से निकल पाते हैं? क्या चौटाला चारों को सबक सिखाने में कामयाब हो पाता है? चारों चौटाला की डिमांड को पूरा कर पाते हैं? यही फिल्म की कहानी है।
एक्टिंग: फिल्म में जिमी शेरगिल ही एक प्रोफेशनल कलाकार के तौर पर नजर आते हैं। जिमी की अदाकारी ही पूरी फिल्म में नजर आती है, जो शानदार है। एक भ्रष्ट पुलिस अधिकारी के रूप में जिमी ने अपने किरदार को जिया है। इस फिल्म से बॉलीवुड डेब्यू कर रहे मोहित मारवाह के एक्सप्रेशंस फिल्म की शुरुआत से लेकर क्लाइमेक्स तक एक जैसे नजर आते हैं। उन्हें अपने बॉडी लैंग्वेज और फेश एक्सप्रेशंस पर बहुत काम करना होगा, तभी आगे बात बनेगी। कहीं तो यह पता ही नहीं चलता कि वह रो रहे हैं या हंस रहे हैं। इसके अलावा, इसी फिल्म से एक्टिंग में धमाल मचाने के इरादे से आए बॉक्सर विजेन्द्र सिंह शायद खुद भी अपनी एक्टिंग देखकर मूड बदल लें। हरियाणवी मूल के इस बॉक्सर ने अपने हरियाणवी संवाद तो कैमरे के सामने उगल दिए, लेकिन एक्टिंग में गच्चा खा गया। अर्फी लांबा को एक्टिंग नहीं आती, यह तय बात है। वहीं, किआरा आडवाणी की एक्टिंग भी अपीलिंग नहीं है।
डायरेक्शन: कबीर सदानंद का कमजोर निर्देशन कई जगह नजर आता है। फिल्म में दिल्ली-एनसीआर के कई बेहतरीन आउटडोर लोकेशन्स को कैमरामैन और डायरेक्टर कबीर ने जरूर अच्छे ढंग से कैद किया है, लेकिन कमजोर पटकथा और असहज अभिनय दर्शकों को बांधे नहीं रख सकता। कबीर सदानंद को यदि अपनी फिल्म के लिए फ्रेश चेहरे ही चाहिए थे तो उन्हें ऑडिशन के दौरान ही ज्यादा बारीकी से कलाकारों का चयन करना चाहिए था। तब उन्हें अंत में मायूसी हाथ नहीं लगती।
क्यों देखें: फिल्म जिमी शेरगिल की अदाकारी के लिए देखी जा सकती है, लेकिन आप यह सोचकर जाएं कि इसके टाइटल सॉन्ग में तो सलमान खान और अक्षय कुमार हैं यार...तो कुछ तो मिलेगा! आप यह तो बिल्कुल ही न सोचें। इन दोनों एक्टर्स का फिल्म की कहानी से कोई लेना-देना नहीं है। हरियाणवी सुनना चाहते हैं तो जाइए फिर...हम कहां रोक रहे हैं।
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